जितिया व्रत की कथा एवं इतिहास

जितिया व्रत की कथा एवं इतिहास

वेदों, पुराणों एवं शास्त्रों अनुसार अश्विन माह की शुक्ल पक्ष की अष्टमी को जितिया पर्व मनाया जाता है । तदानुसार, इस वर्ष 13 सितंबर 2017 को जितिया पर्व मनाया जाएगा। जितिया व्रत हिंदी माह के अनुसार आश्विन महीना के कृष्णपक्ष अष्टमी को प्रदोष काल के दिन बड़े धूम धाम से मनाया जाता है। devotional jitiya festival history
यह महिलाओं का त्यौहार है विवाहित महिलाओं पुत्र रत्न की पराप्ती के लिए यह त्यौहार मानती है। एवं माताये अपने पुत्र की सलामती के लिए जिताया का व्रत करती है। इस त्यौहार के बारे में ऐसा कहा जाता है कि जो माताये इस तोहार को श्रद्धा पूर्वक मानती है भगवान् जीऊतवाहन उनके पुत्र पर आने वाली है सभी समस्याओं से उसकी रक्षा करतें हैं। आइये आज हम आपको जितिया व्रत की कथा के बारे मैं विस्तार पूर्वक बतातें हैं। devotional jitiya festival history

समुद्र तट के निकट नर्मदा नदी के पास कंचनबटी नामक नगर था।  जहाँ का राजा मलयकेतु राज करता था।  नर्मदा नदी के पश्चिम दिशा मैं मरुभूमि था जिसे बालुहटा के नाम से जाना जाता था उस जगह पर एक विशाल पाकड़ का पेड़ था। उस पेड़ पर एक चील रहा करती थी। पेड़ के निचे खोधर था उसमें एक सियारिन ने अपना बसेरा बना रखा था । चील व  सियारिन दोनों  में बड़ी घनिष्ठ मित्रता थी। devotional jitiya festival history

जितिया पर्व की कथा

एक बार की बात है दोनों ने सामान्य महिला के जैसे जितिया व्रत करने का संकल्प लिया और माता शालीनबहन के पुत्र  भगवान् जीऊतवाहन की पूजा करने के लिए निर्जला व्रत रखा । भगवान् की लीला कुछ ऐसी हुई की उसी दिन उस नगर के एक बहुत बड़े व्यापारी का मृत्यु हो गयी। जिसका दाह संस्कार उसी मरुस्थल पर किया गया।  वह काली रात बहुत विकराल थी। घनघोर घटा बरस रही थी । बिजली करक रही थी बादल गरज रहे थे। जोरों की आंधी तूफ़ान चल रही थी। सियारिन को बहुत जोर की भूख लगी थी  मुर्दा देखकर वह अपने आपको रोक न सकी और उसका व्रत  टूट गया ।  परन्तु चील ने नियम एवं श्रद्धा के साथ दूसरे दिन अन्य महिलाओं की तरह व्रत का पारण किया । devotional jitiya festival history
लोगों का ऐसा मानना है की अगले जन्म में दोनों सहेलियों ने पुत्री के रूप में एक ब्राम्हण परिवार जिसका नाम भास्कर था उनके घर जन्म लिया । बड़ी बहन के रूप में चील ने जन्म लिया जिसका नाम शीलवती रखा गया। शीलवती का विवाह बुद्धिसेन के साथ हुआ। छोटी बहन के रूप में जो कि पूर्व जन्म में सियारिन थी उसका नाम कपुरावती रखा गया उसका विवाह उस नगर के राजा मलायकेतु साथ हुआ। जिसके फलस्वरूप कपुरावती कंचनबटी नगर की रानी बनी। भगवान् जीऊतवाहन के आशीर्वाद स्वरुप शीलवती को सात पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई | लेकिन रानी कपुरावती के सभी बच्चे की जन्म लेते ही मृत्यु हो जाती थी जिस कारन  कपुरावती उदास रहने लगी। devotional jitiya festival history

बोलिए जीऊतवाहन भगवान् की जय

कुछ साल बाद जब शीलवती के सातो पुत्र बड़े हुए तो राजा मलयकेतु के राज् दरबार में काम करने लगे। रानी कपुरावती के मन में शीलवती के सातों पुत्रों को देख कर इर्ष्या की भावना आ गयी। और उसके अंदर का शैतान जाग गया । उसने राजा मलयकेतु को राजी कर शीलवती के सातों पुत्रों का सर कटवा कर सात नए बर्तन मंगवा कर उसमे कटे सर रख कर लाल कपड़े से ढक कर शीलवती के घर भिजवा दिया। devotional jitiya festival history
भगवान् से भला क्या छुपा है जो यह छुप जाता भगवान् जीऊतवाहन ने मिटटी से सातों भाइयों  सर बनाकर सभी के सिर को उसके धड़ से जोड़ कर  अमृत छिड़क कर उनमे जान डाल दिया ।  सातों युवक मानो  जैसे एक गहरी नींद से सोकर जगे हो ज़िंदा हो गए और अपने घर लौट कर आ  गए। और जो कटे हुए सर रानी ने भेजा था वह फल बन गए । devotional jitiya festival history

बोलिए जीऊतवाहन भगवान् की जय

इधर रानी कपुरावती बहुत खुस थी और बुद्धिसेन के घर की सुचना पाने के लिए व्याकुल थी । कपुरावती से रहा नहीं गया वह स्वयं अपनी बड़ी बहन के घर  गयी और वहां का दृश्य देख कर सन्न रह गयी। जब उसे होश आया तो अपनी बहन को सारा वृतान्त कह सुनाई , अब उसे अपनी गलती पर बहुत पछतावा हो रहा था। भगवान् जीऊतवाहन की कृपा से शीलवती को अपनी पूर्व  जन्म की सारी बातें याद आ गयी ।

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